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योग वासिष्ठ

बदरीनाथ कपूर

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7001
आईएसबीएन :978-81-8361-163

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स्वामी वेंकटेशानन्द द्वारा किए गए ‘योग वासिष्ठ’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘सुप्रीम योग’ का हिन्दी रूपांतरण...

Yog Vasistha - A Hindi Book - by Badrinath Kapoor

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय मनीषा के प्रतीक ग्रंथों में एक ‘योग वासिष्ठ’ की तुलना विद्वत्जन ‘भगवद् गीता’ से करते हैं। गीता में स्वयं भगवान मनुष्य को उपदेश देते हैं जबकि ‘योग वासिष्ठ’ में नर (गुरु वसिष्ठ) नारायण (श्रीराम) को उपदेश देते हैं।

विद्वत्जनों के अनुसार सुख और दुख, जरा और मृत्यु, जीवन और जगत, जड़ और चेतन, लोक और परलोक, बंधन और मोक्ष, ब्रह्म और जीव, आत्मा और परमात्मा, आत्मज्ञान और अज्ञान, सत् और असत्, मन और इंद्रियाँ, धारणा और वासना आदि विषयों पर कदाचित् ही कोई ग्रंथ हो जिसमें ‘योग वासिष्ठ’ की अपेक्षा अधिक गंभीर चिंतन तथा सूक्ष्म विश्लेषण हुआ हो। अनेक ऋषि-मुनियों के अनुभवों के साथ-साथ अनगिनत मनोहारी कथाओं के संयोजन से इस ग्रंथ का महत्त्व और भी बढ़ जाता है।

स्वामी वेंकटेसानन्द जी का मत है कि इस ग्रंथ का थोड़ा-थोड़ा नियमित रूप से पाठ करना चाहिए। उन्होंने पाठकों के लिए 365 पाठों की माला बनाई है। प्रतिदिन एक पाठ पढ़ा जाए। पाँच मिनट से अधिक समय नहीं लगेगा। व्यस्तता तथा आपाधापी में उलझा व्यक्ति भी प्रतिदिन पाँच मिनट का समय इसके लिए निकाल सकता है। स्वामीजी का तो यहाँ तक कहना है कि बिना इस ग्रंथ के अभी या कभी कोई आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।

स्वामी जी ने इस ग्रंथ का सार प्रस्तुत करते हुए कहा है कि बिना अपने को जाने मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। मोक्ष प्राप्त करने का एक ही मार्ग है आत्मानुसंधान। आत्मानुसंधान में लगे अनेक संतों तथा महापुरुषों के क्रियाकलापों का विलक्षण वर्णन आपको इस ग्रंथ में मिलेगा।

प्रस्तुत अनुवाद स्वामी वेंकटेसानन्द द्वारा किए गए ‘योग वासिष्ठ’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘सुप्रीम योग’ का हिन्दी रूपांतरण है जिसे विख्यात भाषाविद् और विद्वान बदरीनाथ कपूर ने किया है। स्वामी जी का अंग्रेजी अनुवाद 1972 में पहली बार छपा था जो निश्चय ही चिंतन, अभिव्यक्ति और प्रस्तुति की दृष्टि से अनुपम है। लेकिन विदेश में छपने के कारण यह भारतीय पाठकों के समीप कम ही पहुँच पाया। आशा है, यह अनुवाद उस दूरी को कम करेगा, और हिन्दी पाठक इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक का लाभ उठा पाएँगे।

भूमिका

‘योग वासिष्ठ’ भारतीय मनीषा के प्रतीक सर्वोत्कृष्ट ग्रंथों में है। विद्वत्जन इसकी तुलना ‘भगवद् गीता’ से करते हैं। दोनों उपदेश प्रधान ग्रंथ हैं। भगवद् गीता में स्वयं नारायण (श्रीकृष्ण) नर (अर्जुन) को उपदेश देते हैं जबकि ‘योग वासिष्ठ’ में नर (गुरु वासिष्ठ) नारायण (श्रीराम) को उपदेश देते हैं। दोनों ही ग्रंथों में अर्जुन और श्रीराम के माध्यम से दिए गए उपदेश मानवता के लिए कल्याणकारी हैं, उसे निराशा और अवसाद से उबारते हैं और उसे मूल ध्येय की ओर अग्रसर करते हैं।  
सुख और दुख, जरा और मृत्यु, जीवन और जगत, जड़ और चेतन, लोक और परलोक, बंधन और मोक्ष, ब्रह्म और जीव, आत्मा और परमात्मा, आत्मज्ञान और अज्ञान, सत् और असत्, मन और इंद्रियाँ, धारणा और वासना आदि विषयों पर कदाचित् ही कोई ग्रंथ हो जिसमें योग वासिष्ठ की अपेक्षा अधिक गंभीर चिंतन तथा सूक्ष्म विश्लेषण हुआ हो। अनेक ऋषि-मुनियों के अनुभवों के साथ-साथ अनगिनत मनोहारी कथाओं के संयोजन से इस ग्रंथ का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। स्वामी वेंकटेसानन्द जी का मत है कि इस ग्रंथ का थोड़ा-थोड़ा नियमित रूप से पाठ करना चाहिए। उन्होंने पाठकों के लिए 365 पाठों की माला बनाई है। प्रतिदिन एक पाठ पढ़ा जाए। पाँच मिनट से अधिक समय नहीं लगेगा। व्यस्तता तथा आपाधापी में उलझा व्यक्ति भी प्रतिदिन पाँच मिनिट का समय इसके लिए निकाल सकता है। स्वामीजी का तो यहाँ तक कहना है कि बिना इस ग्रंथ के अभी या कभी कोई आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।

स्वामी जी ने इस ग्रंथ का सार प्रस्तुत करते हुए कहा है कि बिना अपने को जाने मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। मोक्ष प्राप्त करने का एक ही मार्ग है आत्मानुसंधान। आत्मानुसंधान में लगे अनेक संतों तथा महापुरुषों के क्रियाकलापों का विलक्षण वर्णन आपको इस ग्रंथ में मिलेगा।

प्रस्तुत अनुवाद स्वामी वेंकटेसानन्द के अंग्रेजी अनुवाद ‘सुप्रीम योग’ का हिन्दी रूपांतरण है। स्वामी जी का अंग्रेजी अनुवाद 1972 में पहली बार छपा था। निश्चय ही यह चिंतन, अभिव्यक्ति और प्रस्तुति की दृष्टि से अनुपम है। विदेश (आस्ट्रेलिया) में छपने के कारण यह भारतीय पाठकों के समीप कम ही पहुँच पाया। हिन्दी पाठक तो अभी तक वंचित ही रहे हैं। इसकी भाषा और शैली ने मुझे ऐसा मुग्ध किया कि मैं इसके हिन्दी रूपांतरण का लोभ संवरण न कर सका। स्वामी जी के चिंतन, शब्द चयन और भाषा-प्रवाह की झलक भी इस रूपांतरण से पाठकों को मिल सकी तो मैं अपना परिश्रम सफल समझूँगा। सुरुचिपूर्ण टंकन के लिए श्री अनिल कुमार सिंह को धन्यवाद। भाई अशोक महेश्वरी जी ने इसे भव्य रूप दिया है, उसके लिए आभार व्यक्त करता हूँ।
काशी के प्रतिष्ठित नागरिक तथा ‘आर्ट ऑफ लीविंग’ के प्रशिक्षक श्री राकेश टंडन जी अंग्रेजी अनुवाद की पुस्तक लेकर मेरे पास आए थे और कहने लगे कि श्री श्री रविशंकर जी की हार्दिक इच्छा है कि इस पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद हो। संभवत: उस महान आत्मा का ही आशीर्वाद है कि पुस्तक आप सबके हाथों में है। मैं गुरुजी को नमन करता हूँ और टंडन जी को हार्दिक धन्यवाद।

शब्दलोक
अक्षय तृतीय, 19 अप्रैल, 2007

बदरीनाथ कपूर


जिस प्रकार पक्षी अपने दोनों परों से उड़ते हैं उसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति में कर्म और ज्ञान दोनों सहायक होते हैं।

संसार का स्वरूप भ्रम में डालनेवाला है। यहाँ तक कि नीला दिखाई पड़नेवाला आकाश भी दृष्टिभ्रम है।

अज्ञानी के लिए धर्मग्रंथों का ज्ञान भार होता है और जिसे आत्मज्ञान न हो उसके लिए जीवन भार होता है।

वह सच्चा वीर नहीं जिसने शक्तिशाली सेना पर विजय पाई हो। सच्चा वीर वह है जिसने मन और इंद्रियाँ रूपी सागर से पार पाया हो।

यह संसार कुम्हार के चाक के समान है। चाक खड़ा ही प्रतीत होता है जबकि वह द्रुत वेग से घूम रहा होता है।

किसी को इंद्रियों के विषय तभी तक प्रिय लगते हैं जब कि वह अपने अपरिहार्य विनाश से बेखबर रहता है।

इस संसार में जो कुछ भी प्राप्त किया जाता है वह अपने कर्म से किया जाता है।

वह मूढ़ है जो कहता है कि भाग्य मुझे घसीटे लिये जा रहा है।

जब कोई अपने दुख की बात अपने मित्र पर प्रकट करता है तो उसका दुख उसी प्रकार हलका हो जाता है जिस प्रकार काले घने बादल बरसने के बाद हलके हो जाते हैं।

ज्ञानी व्यक्ति गुणों या विशेषताओं के आधार पर नहीं जाना जाता। वह भ्रम और भ्रांति से रहित होता है।

जो लोग मन को जानते हैं वे कहते हैं कि मन ही ‘मैं’ है।
जो अहंभाव आप में उत्पन्न होता है वही मन है।

मूल कारण का निरसन ही उद्धार है।
वही पतन से उत्थान की ओर ले जाता है।
कोई और मार्ग उपयुक्त या प्रशंसनीय फलदायक नहीं।

मन संसार का रचयिता है।
प्राणी में प्राणों का प्रवेश करानेवाला मन ही है।

जब इंद्रियाँ बाह्य जगत का अनुभव प्राप्त करने में रत रहती हैं तब आंतरिक धारणाओं का जगत अनिश्चित और अस्पष्ट रहता है।

‘यह है’ की भावना का ही नाम संसार है।
इसकी समाप्ति मोक्ष है।

यह दृश्य संसार और कुछ नहीं मन का खेल है और मन भी सर्वशक्तिमान परमात्मा का ही खेल है।

दूषित मन को तो खंभा भी प्रेत जैसी दिखाई देता है।

भाग्य और देवताओं पर भरोसा करना मंदबुद्धि की देन है।

स्व को अमर्त्य माननेवाला मृत्यु से नहीं डरता।

जब मन अपनी हलचल से अलग-थलग हो जाता है तो मोक्ष की प्राप्ति होती है।

ज्ञानी व्यक्ति सुखों से आकृष्ट नहीं होते क्योंकि सुख और दुख में परिवर्तित हो जाते हैं।
मन तो मात्र अज्ञान की उपज है।

1 जनवरी


उभाभ्याम् एव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिण: गति:
तथैव ज्ञान कर्माभ्यां जायते परम पद्म (7)

सुतीक्ष्ण ने अगस्त ऋषि से पूछा :
हे ऋषि, मुझे मोक्ष के संबंध में जानकारी दें और बताएँ कि कर्म और ज्ञान में से कौन मोक्ष की प्राप्ति में सहायक है।

अगस्त्य ऋषि ने उत्तर दिया :


जिस प्रकार पक्षी अपने दोनों परों से उड़ते हैं, उसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति में कर्म और ज्ञान दोनों सहायक होते हैं। न अकेले कर्म ही मोक्ष की प्राप्ति में सहायक हो सकता है और न अकेले ज्ञान ही। सुनो ! तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ। कारुण्य नामक एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति था। उसके पिता का नाम अग्निवेश्य था। धर्मग्रंथों के अध्ययन तथा मनन के फलस्वरूप कारुण्य जीवन के प्रति उदासीन हो गया था। अग्निवेश्य ने एक दिन अपने पुत्र से पूछा कि तुमने अपना नित्य नियम क्यों छोड़ दिया है। उत्तर में कारुण्य ने कहा, ‘‘हमारे धर्मग्रंथ एक बात तो यह कहते हैं कि शास्त्रों में उल्लिखित सभी कर्म करने चाहिए और साथ ही यह भी कहते हैं कि अमर पद प्राप्त करने के लिए सभी कर्मों का त्याग कर देना चाहिए। मेरे पिताजी ! मेरे गुरुवर ! मेरी समझ में नहीं आ रहा कि आखिर मैं क्या करूँ ?’’ इतना कहकर कारुण्य चुप हो गया।

अग्निवेश्य ने उत्तर दिया :


मेरे बेटे, ध्यान से सुनो। मैं तुम्हें एक प्राचीन कथा सुनाता हूँ। उसके निष्कर्ष पर विचार करो और फिर जैसा तुम समझो वैसा करो। एक समय की बात है कि सुरुचि नामक अप्सरा हिमालय की एक चोटी पर बैठी थी। उसने देवताओं के राजा इंद्र के दूत को अपनी ओर आते हुए देखा। सुरुचि के पूछने पर उसने अपने आने का प्रयोजन बतलाया। उसने कहा कि राजर्षि अरिष्टनेमि ने अपना राज्य अपने पुत्र को सौंप दिया है और अब वे गंधमादन पर्वत का घोर तपस्या में लगे हुए हैं। यह देखकर इंद्र ने मुझसे कहा कि अप्सराओं का झुंड लेकर जाओ और उन्हें स्वर्ग में ले आओ। उत्तर में मैंने कहा कि पुण्य आत्माओं को पुरस्कृत करने के लिए स्वर्ग स्थल नहीं क्योंकि पुण्य कर्मों के क्षीण होने पर उन्हें फिर मृत्युलोक में जाना पड़ता है। उन राजर्षि ने भी इंद्र का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया और स्वर्ग जाने से भी इन्कार कर दिया। इंद्र ने मुझे पुन: राजर्षि के पास कहने के लिए भेजा है कि वे मेरा निमंत्रण ठुकराने से पहले महर्षि वाल्मीकि से परामर्श अवश्य कर लें।
राजर्षि का परिचय फिर महर्षि वाल्मीकि से हुआ। उन्होंने वाल्मीकि से पूछा, ‘‘जन्म –मरण के चक्कर से बच निकलने का उपाय क्या है ?’’ उत्तर में वाल्मीकि ने राम वसिष्ठ में हुई वार्ता का वर्णन किया।

2
जनवरी


अहं बद्धो विमुक्त: स्याम् इति यस्यास्ति निश्चय:
नात्यन्तम् अज्ञो नो तज् ज्ञ: सोस्मिन चास्त्रेधिकारवान् (2)

वाल्मीकि ने कहा :


राम और वसिष्ठ की वार्ता-संबंधी इस धर्मग्रंथ के अध्ययन का वही अधिकारी है जो यह अनुभव करे : ‘‘मैं बंधन में पड़ा हूँ और मुझे इस बंधन से अपने को मुक्त करना है। ऐसा व्यक्ति न तो पूर्ण रूप से अज्ञानी होता है और न ज्ञानी ही। जो इस धर्मग्रंथ में उल्लिखित मोक्ष के उपायों पर मनन करता है वह निश्चय ही जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पा जाता है।

मैंने पहले रामकथा लिखी थी उसका वर्णन अपने प्रिय शिष्य भरद्वाज से किया था। भरद्वाज एक बार मेरु पर्वत पर गए थे तो उन्होंने इसका वर्णन सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से किया था। कथा से अत्यधिक प्रसन्न होने पर ब्रह्मा जी ने भरद्वाज से वर माँगने के लिए कहा था। भरद्वाज ने यह वर माँगा : ‘‘संसार के सभी मनुष्यों को दुखों से छुटकारा मिले।’’ साथ ही उन्होंने ब्रह्मा जी से यह भी कहा : ‘‘छुटकारा कैसे प्राप्त हो इसका उपाय भी कृपाकर बतलाएँ।’’




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